बस्ती में चिराग अंधेरों से हारा है।
महफूज था दुश्मनों से उसे दोस्तों ने मारा है।
मेरे हाथ का खंजर मेरा ही कातिल निकला
इस वक्त के दरिया में, लहरें चलती आवारा हैं।
तन्हाई का कोई मौसम,शहर की भीड. से गुजरे
कोई बादल जो बिन गरजे, झमा झम बरस जाये।
आवाज आहट की सन्नाटे में जिन्दा है
जहां मेला है लोगो का, सकूं कैसे कोई पाये।
सडक पर बाढ का पानी पहियों सा दिखता है,
सांसो की रवानी में सूरज भी ढलता है ।
आसमां की रंगत उड गई धुएं के सुर्ख बादल से,
मेरी चाहत में अब भी गांव का सपना ही पलता है।
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