बुधवार, 11 जनवरी 2012

इमानदारी



इमानदारी क्‍या गेहूं का आटा है ?
जब चाहा पानी की धार गिराई और जैसी चाही बनाके लुगदी निवाले में तब्दील कर दिया।
या साख का पत्‍ता है , हवा में हिलेगा, पतझड में गिरेगा, ओस की बुंदों मे खिलेगा।
एक बहस है जो शहर के गलियारे से गांव की चौपाल तक चल रही है।
इतिहास के पन्‍नो से वर्तमान के संर्दभों में नई परिभाषायें गढ रही है।
उनकी अटारी पर चमकते सूरज की बाती आखिर, किसके लहू से जल रही है?
पसीना पोछकर जो खेतों से आया है, क्‍या उसे बिसलरी की बोतल मिल रही है ?
फिर जिन्‍हे अपनी ईमानदारी पर गुरूर है उन हुक्‍मरानों से पूछो ,
कि न्‍याय और शासन के दोहरे मापदंडो पर कबतक चलेगा आम आदमी
उसके हाथ का डंडा बैलों को नही , शासन को भी दिशा दे सकता है
जिसके फावडे से भूख का भविष्‍य तय होता है, वो अपनी किस्‍मत की रेखायें खींच सकता है।
इस बीच बहस में र्इमान का बाजारवाद सेंसेक्‍स पे नजरे टिकाये है
इससे पहले की अप्रत्‍याशित उछाल है अपनी जमां पूंजी बचा लो यारो....................................

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