शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

तन्हा्ई..................

               कुछ नज्‍म , कुछ शेर, कुछ रूबाईयां लिखी,
               मैने तो बस रात की तन्‍हाइयां लिखी.......।

               उनके सीने में जलन है मेरी आहट से,
               मै क्‍या करूं, उनकी बेवफाईयां लिखी।

               शहर में चर्चा ए आम है उनकी रूखसत का,
               मैने तो अपनी जेहन की रूसवाईयां लिखी।

               गूलों से पूछते हैं वो मेरे दर का पता,
               मैने तो उनके नाम अपनी कलाईयां लिखी।

               वो तब्‍स्‍सुम, वो शबाब, वो तेरा हिजाब,
               क्‍या कहूं, तलातूम की अंगडाईयां लिखी।


बुधवार, 11 जनवरी 2012

शहर


बस्ती में चिराग अंधेरों से हारा है।
महफूज था दुश्‍मनों से उसे दोस्‍तों ने मारा है।
मेरे हाथ का खंजर मेरा ही कातिल निकला
इस वक्‍त के दरिया में, लहरें चलती आवारा हैं।

तन्‍हाई का कोई मौसम,शहर की भीड. से गुजरे
कोई बादल जो बिन गरजे, झमा झम बरस जाये।
आवाज आहट की सन्‍नाटे में जिन्‍दा है
जहां मेला है लोगो का, सकूं कैसे कोई पाये।

सडक पर बाढ का पानी पहियों सा दिखता है,
सांसो की रवानी में सूरज भी ढलता है ।
आसमां की रंगत उड गई धुएं के सुर्ख बादल से,
मेरी चाहत में अब भी गांव का सपना ही पलता है।

मेरी जन्‍नत, मेरा मकां


तिनका तिनका जुटाया एक अदद आशियाने को,
धूप, बारिश ,सर्द हवाओं में सर छुपाने को,
मेरी जन्‍नत, मेरा मकां है थपेडों में,
थोडी सी और जगह है तुझे बुलाने को।
मौसम ए इश्‍क में जो आसमां साथ देता है,
तेरी बुलंदी पर ये जहां साथ देता है,
एक उंचाई जो छू लेते हो,
फिर तो पंखों को हवा भी साथ देता है।
गर बात इतनी सी होती जिंदगी के लिए,
हर भरोसे को मंजिल का पता मिल जाता।
जिसकी चाहत में उजाले भी साथ छोड जाए,
वैसी हर मुश्किल का पता मिल जाता।
सडक पर रोशनी जब रंग बदल जाती है,
आशियाने के कई रंग नजर आते हैं।
सडक से छतों के मुंडेरों तक,
जमाने के कई रंग नजर आते है ।
मेरी आदत है देखने की, पर रंगीन नही
शायद इसलिए मुझे हर रंग नजर आते हैं।
शहर के गिरहबां में झांको तो,
कई रंग  बदरंग नजर आते हैं।

भ्रष्‍टाचार


तोड दो दासता की आज हर दीवार को
बली की वेदी पर ,लाओ भ्रष्‍टाचार को
सभ्‍यता के पथ पे, चूभते हर सूल को
भ्रष्‍ट सत्‍ता के, मदमस्‍त हर दलाल को।
नीतियों में नीयत की खोट पे प्रहार हो
जनविरोधी सोच की पग पग पे हार हो
तेरे लहू से सींचते हैं बाग की जो क्‍यारियां
उन खेतों की मेड पर अपना हल कुदाल हो
आज की आवाज पर पहरा बिठा है हर तरफ
बेडियां , सलाखों की दे रहे हैं वे सबब
जेल की दीवाल पर कितने लिखोगे नाम तुम
हर मोड पर हैं खडे, तेरे खिलाफ बेसबब
जिस दंभ मे तू भर रहा हुंकार अब वो चूर हो
सत्‍य की जीत हो , ना कोई मजबूर हो
एक जंग है ऐलान जिसकी हो गई सडक से है
गूज संसद में सूनो, जो मुद्दे सड.क पे मशहूर हो। 

इमानदारी



इमानदारी क्‍या गेहूं का आटा है ?
जब चाहा पानी की धार गिराई और जैसी चाही बनाके लुगदी निवाले में तब्दील कर दिया।
या साख का पत्‍ता है , हवा में हिलेगा, पतझड में गिरेगा, ओस की बुंदों मे खिलेगा।
एक बहस है जो शहर के गलियारे से गांव की चौपाल तक चल रही है।
इतिहास के पन्‍नो से वर्तमान के संर्दभों में नई परिभाषायें गढ रही है।
उनकी अटारी पर चमकते सूरज की बाती आखिर, किसके लहू से जल रही है?
पसीना पोछकर जो खेतों से आया है, क्‍या उसे बिसलरी की बोतल मिल रही है ?
फिर जिन्‍हे अपनी ईमानदारी पर गुरूर है उन हुक्‍मरानों से पूछो ,
कि न्‍याय और शासन के दोहरे मापदंडो पर कबतक चलेगा आम आदमी
उसके हाथ का डंडा बैलों को नही , शासन को भी दिशा दे सकता है
जिसके फावडे से भूख का भविष्‍य तय होता है, वो अपनी किस्‍मत की रेखायें खींच सकता है।
इस बीच बहस में र्इमान का बाजारवाद सेंसेक्‍स पे नजरे टिकाये है
इससे पहले की अप्रत्‍याशित उछाल है अपनी जमां पूंजी बचा लो यारो....................................