शनिवार, 1 दिसंबर 2012
गुरुवार, 28 जून 2012
फुर्सत के इंतजार मे....
फुर्सत के इंतजार मे.........
किसी ख्याल का जेहन मे अनवरत बहना,
उमडते जज्बात सीने मे ज्वार से उठने लगे,
दूर किनारे की तलाश मे लहरों का चलते जाना,
क्षीतिज मिल जाये धरा से उस ओर बढते जाना।
आवारापन बादलों पर जब छा जाये,
हवा का रूख बदलता रहे दिशाओं मे,
सूरज की तपीश ,शोलो सी बरसती रही,
पेड की छांव मे वक्त भी पनाह मांगे।
ऐसे मौसम मे शाम का ढलना,
रात की चादर मे चांद का आना,
तेरे आंगन मे जूगनूओं की रोशनी हो,
कपोलों से बुंदो का लुढक जाना।
बेबसी का शुन्य मे संताप,
जैसे बेमौसम हो रही हो बरसात,
कुछ पल शकून के गुजारने हैं,
इंतजार है कि फुर्सत की हवा चले।
गुरुवार, 21 जून 2012
प्रभावहीन.....
प्रभावहीन.....
जीवन के शांत धरातल पर
सुबह की ओस,दोपहर की धूप,
शाम की शीतल हवा और रात की खामोशी,
अपने अपने हिस्से की ब्यथा छोड जाते है।
मेरा सीना ओढ लेता है कर्इ बार,
कोहरे की चादर, जैसे छायें हो घने बादल,
बारिश की बूंदो से दिल की जलन को भले ही आराम मिले,
तेरी यादों की घनेरी छावों मे भी भीग जाता हूं तरबतर।
एक अहसास, फूटती है सीने के गर्भ से,
जिसके कोमल कपोलो पर मुस्कान बिखरी है,
तेरे मेरे होने की पहचान बिखरी है,
गुमनामी के अंधेरे से उजाले की ओर...
समय के शेष हिस्से मे उडान भरना है,
अनन्त के ब्यास मे गतिशील,
क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया से
प्रभावहीन, दिशामुक्त, विरक्त,
की रह ना जाये शेष मेरे सीने मे बदलते समय की ब्यथा।
शनिवार, 12 मई 2012
बचपन की यादें
बचपन की यादें....
ख्वाबों को दिन के उजालो मे गढना,
बेबाक धीर धरना , साकार करना,
ना मुडकर कभी पीछे देखा कहीं भी,,
छोड उंगली चला, बस चलते ही रहना।
वक्त की राह कितनी सहज चलती जाती,
आती है जब भी बचपन की यादें।
आम के मंजर जैसे टिकोले मे बदले,
सर पे सूरज उगलने लगता था शोले,
मां कहती थी सो जा लू लग जायेगी,
हम इस ताक मे थे कब बागीचा डोलें।
आग सूरज ने चाहे लगाई हो जितनी,
चांद बरसे तो परियों ने भी पंख खोले,
दादी अम्मा से सुनना ऐसी कहानी,
बडी खुबसूरत राजा और रानी।
यादों के ऐसे मंजर ,दिल को सताते,
आती है जब भी बचपन की यादें।
आसमां की रंगत बदलते देखा,
सूरज को कोहरे तले ढलते देखा,
बादलो की चादर से चमकी जो बिजली,
डर के मारे खूद को सहमते भी देखा।
बूंदो की सरगम मे तन को भिगोना,
गिली मिट्टी से गढना अपना खिलौना।
मिट्टी की क्यारियों से नदियां बनाना,
दूर उनको ले जाना समंदर गिराना।
मै और हम की ना होती थी बाते
आती है जब भी बचपन की यादें।
वक्त का मोड जब मुझसे रूठ जाये,
रिश्ते नातो का बंधन मुझको सताये,
लौट जाता हूं मै बचपन की यादों में,
जहां सब हैं अपने , ना कोई पराये।
शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012
वोट दो
चुनाव के नाम पर सजी है महफिलें,
एक दूजे को गाली देने की रस्म निभानी है।
तू मेरा है मै तेरा हूं, साध रहे सब रिश्तों को,
चंद दिनों की बात है, फिर याद किसे ये आनी है।
जनता बनी है फूल , नेता भंवरों से मंडराते हैं
इठलाते , बलखाते हैं, खूब कसीदे गाते हैं
नाम वोट का ले ले कर वादों की झडी लगाते हैं
एक बार मिले जो कुर्सी फिर याद किसे ये आते हैं।
नोट वोट का गठबंधन है, खादी पर दिखता चंदन है,
दर दर दस्तक देते हैं, वोटर का होता वंदन है
चार दिनो की चांदनी जैसी, उजियारा अरमानों का है
लोकतंत्र का बना मजाक , राज यहां बेईमानों का है।
चलो वोट अपना देने मतदान केन्द्र की ओर चले,
सही उम्मदीदवार को सोचे परखे जिससे अपना हित सधे।
एक बार जो गलत चुना तो पांच साल पछताना होगा,
मौका है बदलाव का उससे बिमुख हो जाना होगा।
शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012
तू कौन है.........................?
तू कौन है.........................?
अन्नत में लिपटा ,सिमटा एक कैनवास
जिसपे उकेरता है कोई रंगो की छटायें
कभी पास आये कभी दूर जायें
हवाओं के रूख बदलने से बदल जाए।
वो कौन है जो छेडता है यूं बार बार,
बिखेरता है सफेद चादर नीले अम्बर में
बूंदो की हलचल से ठहर जाते हैं हम
लहरों का तूफां बन जाती है सरगम।
बदल गया है पतों का रंग अचानक
जमीं पर बिछ गई है पीली चादर
पंखुडियों पर ओस की इठलाती बूंदे
मादक सी जेहन में उतरती सुगंधे
तेरे जादू पर निसार होना चाहता हूं
तेरे करतब से दो चार होना चाहता हूं
खूली पलकों में तू आके समा जा
या फिर नींद में खलल बनके आ जा
जिधर देखता हूं तेरी हंसी है
हर जर्रे में फैली तेरी रोशनी है
जो मायूस है कोई सितमगर यहां
तेरी रहमत की हुई उसको कमी है
राग में,रंग में, फूल में, सुगंध में
मीरा की भक्ति मे , तू हर अंग में
जटा जो बिखेरे तो शैलाब आए
अपनी नजरे समेटे तो दिन ढल जाए
बेपलक ढूंढता हूं, निराकार बन जा
जो नजरे मैं खोलूं तो साकार बन जा
मेरी भक्ति में शक्ति की ओज भर दे
मैं तूझमें समाउं मुझे ऐसा वर दे।
शुक्रवार, 13 जनवरी 2012
तन्हा्ई..................
कुछ नज्म , कुछ शेर, कुछ रूबाईयां लिखी,
मैने तो बस रात की तन्हाइयां लिखी.......।
उनके सीने में जलन है मेरी आहट से,
मै क्या करूं, उनकी बेवफाईयां लिखी।
शहर में चर्चा ए आम है उनकी रूखसत का,
मैने तो अपनी जेहन की रूसवाईयां लिखी।
गूलों से पूछते हैं वो मेरे दर का पता,
मैने तो उनके नाम अपनी कलाईयां लिखी।
वो तब्स्सुम, वो शबाब, वो तेरा हिजाब,
क्या कहूं, तलातूम की अंगडाईयां लिखी।
बुधवार, 11 जनवरी 2012
शहर
बस्ती में चिराग अंधेरों से हारा है।
महफूज था दुश्मनों से उसे दोस्तों ने मारा है।
मेरे हाथ का खंजर मेरा ही कातिल निकला
इस वक्त के दरिया में, लहरें चलती आवारा हैं।
तन्हाई का कोई मौसम,शहर की भीड. से गुजरे
कोई बादल जो बिन गरजे, झमा झम बरस जाये।
आवाज आहट की सन्नाटे में जिन्दा है
जहां मेला है लोगो का, सकूं कैसे कोई पाये।
सडक पर बाढ का पानी पहियों सा दिखता है,
सांसो की रवानी में सूरज भी ढलता है ।
आसमां की रंगत उड गई धुएं के सुर्ख बादल से,
मेरी चाहत में अब भी गांव का सपना ही पलता है।
मेरी जन्नत, मेरा मकां
तिनका तिनका जुटाया एक अदद आशियाने को,
धूप, बारिश ,सर्द हवाओं में सर छुपाने को,
मेरी जन्नत, मेरा मकां है थपेडों में,
थोडी सी और जगह है तुझे बुलाने को।
मौसम ए इश्क में जो आसमां साथ देता है,
तेरी बुलंदी पर ये जहां साथ देता है,
एक उंचाई जो छू लेते हो,
फिर तो पंखों को हवा भी साथ देता है।
गर बात इतनी सी होती जिंदगी के लिए,
हर भरोसे को मंजिल का पता मिल जाता।
जिसकी चाहत में उजाले भी साथ छोड जाए,
वैसी हर मुश्किल का पता मिल जाता।
सडक पर रोशनी जब रंग बदल जाती है,
आशियाने के कई रंग नजर आते हैं।
सडक से छतों के मुंडेरों तक,
जमाने के कई रंग नजर आते है ।
मेरी आदत है देखने की, पर रंगीन नही
शायद इसलिए मुझे हर रंग नजर आते हैं।
शहर के गिरहबां में झांको तो,
कई रंग बदरंग नजर आते हैं।
भ्रष्टाचार
तोड दो दासता की आज हर दीवार को
बली की वेदी पर ,लाओ भ्रष्टाचार को
सभ्यता के पथ पे, चूभते हर सूल को
भ्रष्ट सत्ता के, मदमस्त हर दलाल को।
नीतियों में नीयत की खोट पे प्रहार हो
जनविरोधी सोच की पग पग पे हार हो
तेरे लहू से सींचते हैं बाग की जो क्यारियां
उन खेतों की मेड पर अपना हल कुदाल हो
आज की आवाज पर पहरा बिठा है हर तरफ
बेडियां , सलाखों की दे रहे हैं वे सबब
जेल की दीवाल पर कितने लिखोगे नाम तुम
हर मोड पर हैं खडे, तेरे खिलाफ बेसबब
जिस दंभ मे तू भर रहा हुंकार अब वो चूर हो
सत्य की जीत हो , ना कोई मजबूर हो
एक जंग है ऐलान जिसकी हो गई सडक से है
गूज संसद में सूनो, जो मुद्दे सड.क पे मशहूर हो।
इमानदारी
इमानदारी क्या गेहूं का आटा है ?
जब चाहा पानी की धार गिराई और जैसी चाही बनाके लुगदी निवाले में तब्दील कर दिया।
या साख का पत्ता है , हवा में हिलेगा, पतझड में गिरेगा, ओस की बुंदों मे खिलेगा।
एक बहस है जो शहर के गलियारे से गांव की चौपाल तक चल रही है।
इतिहास के पन्नो से वर्तमान के संर्दभों में नई परिभाषायें गढ रही है।
उनकी अटारी पर चमकते सूरज की बाती आखिर, किसके लहू से जल रही है?
पसीना पोछकर जो खेतों से आया है, क्या उसे बिसलरी की बोतल मिल रही है ?
फिर जिन्हे अपनी ईमानदारी पर गुरूर है उन हुक्मरानों से पूछो ,
कि न्याय और शासन के दोहरे मापदंडो पर कबतक चलेगा आम आदमी
उसके हाथ का डंडा बैलों को नही , शासन को भी दिशा दे सकता है
जिसके फावडे से भूख का भविष्य तय होता है, वो अपनी किस्मत की रेखायें खींच सकता है।
इस बीच बहस में र्इमान का बाजारवाद सेंसेक्स पे नजरे टिकाये है
इससे पहले की अप्रत्याशित उछाल है अपनी जमां पूंजी बचा लो यारो....................................
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