रविवार, 18 जुलाई 2021

बचपन की बारिश

 बचपन की बारिश...


बचपन की बारिश ,बारिश का पानी
यादें सुनहरी, अमिट है कहानी,
भीगें बदन, पैर में गीली मिट्टी
झमाझम बरसता सावन खट्टी मीठी.

उस दौर में तो भीगना था मुक्कदर,
बहते पानी का नाला जैसे समंदर .
नाव कागज़ की लेकर उतर जाते थे,
जैसे सहराओं से गुजरता था सिकन्दर.

टपकती छत के नीचे बाल्टी रखकर,
सोते कानो में मेढकों की टर्र टर्र,
रात भीगी थी अरमान सूखे सूखे थे,
लेकिन बारिश से हम कभी न रूठे थे!

रविवार, 2 फ़रवरी 2020

वर्दी वाले गुंडे..

मौजूदा हालात पर मेरी यह कविता...

जब वर्दी में ही गुंडे हो,
खाकी में खड़े लफंगे हो,
कानून है इनकी जूती में,
जोर जुल्म मजबूती में,

तो कौन न्याय की ढाल बने
फिर कौन मुक्त महसूस करे
हर तरफ बेड़िया, हंटर है
जब पुलिस के हाँथ ही खंजर है,

लोकतंत्र खड़ा है कोमा में
अराजकता की सीमा में,
आजादी प्रेस की कैद हुई
अभिव्यक्ति ही अवैध हुई

सच की कीमत सरहद जैसी
जहा हर पल जीवन खतरे में
दिल्ली पुलिस के साये में
अन्याय दिखा हर कतरे में,

गांधी जब मन के आँगन से
हांथो के धूल बन जायेंगे
जय भीम के नारे कहने पर
डंडे बरसाए जाएंगे

तो फिर क्यों न कहें तुम्हे जालिम हम
जिसका आदर्श जलियावाला
इस लोकतन्र्त के खम्बे का
कौन बचा है रखवाला?

मधुरेन्द्र

शनिवार, 4 जनवरी 2020

पत्थर की व्यथा


मैं एक घायल पत्थर हूं,
कौन मेरी सुध लेगा भारत?
तेरी भूमि पर हुआ तिरस्कृत, 
इतना कि बदली मेरी सूरत.

घर में छत हूं और दीवार,
बाहर भीतर अपरम्पार,
सफर में सड़क बन जाता हूं,
करता हूं हर मंजिल पार.

मंदिर हो या मस्जिद हो,
गुरुद्वारा या कोई देवालय,
कही आराध्य का आशियाँ हूं,
कही बन जाऊं स्वयं शिवालय.

तेरे पग से मस्तक तक 
रोज वरण मेरा होता है,
वक्ष पाताल का मेरा है
हिम से शिखर दमकता है.

लेकिन तेरे नये भारत मे
ये क्या मेरा उपयोग हुआ?
मैं शस्त्र नहीं मैं अस्त्र नहीं,
क्यों मेरा दुरुपयोग हुआ.

मैं प्रकृति का एक अंग,
मनुजता के सदैव संग,
मेरा क्या दोष है इस जग में
की मेरा ऐसा उपभोग हुआ?

करो माफ हे जगवालो,
मुझसे कोई घायल न हुआ,
मैं स्वयं व्यथित हूं देख दृश्य
क्यों मुझसे खूनी खेल खेला?

मैं पत्थर हूं, पत्थर-दिल नही,
ये बात समझ जाओ तुम लोग,
इंसा हो इंसा बने रहो,
बंद करो मेरा प्रयोग ।

मधुरेन्द्र

मंगलवार, 17 अक्टूबर 2017

दिया और जीवन

     
              🔥💥☄⚡🔥💥☄⚡
जीवन समर दिये सा है, जलते रहना फितरत है,
बाती, तेल, हवा का झोंका; शेष आपकी किस्मत है.
लॉ की अपनी दिशा है अम्बर ,ना कोई असर  गुरुत्व बल का,
जिसके तेज से फ़टे अंधेरा, चलता वह धारा के विपरीत है.

लिपटी रात कालिमा में, फैला चहु ओर अंधेरा है,
टिम टिम टिम टिम गहन सितारे ऐसे उतरे की सबेरा है.
हर अंधेरे के सीने में दीप, दीप की लौ फूटे,
हर समाज का चेतन मन जैसे प्रस्फुटित हो उठे.

हम अंधेरे के हर साम्रज्य को सदियो से चुनौती देते है,
हर दीपावली नव जीवन मे नई संवेदना भरते है.
टकराये हर ग्रह नक्षत्र से ऐसा हो हिमालय सा निश्चय,
ज्योति कलश सजाए ऐसे , हर क्लेश हो जाये छय.

एक और दीवाली के पथ पर हम चलने को तैयार खड़े,
हर रोज दीवाली जीवन मे हो ऐसा हम संकल्प गढ़े.
तन का ही नही मन का भी, अधंकार सब मिट जाए,
ऐसी कामना के संग सबको, आज हम नमन करें.🙏🙏🙏🙏
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं आपको और पूरे परिवार को
🙏🙏
मधुरेन्द्र सपरिवार

रविवार, 8 अक्टूबर 2017

कलम और कातिल




कत्ल भी कलम का,खरीददार भी कलम का
रक्तिम सा हो गया है बाज़ार ये कलम का।
इतने भयाक्रांत तो न बम से है ना बारूद से,
जितने डरे डरे से है वे  सच के वजूद से!

विचार के प्रवाह पर विध्वंस की दीवार है,
स्वछंदता,स्वतन्त्रता का हो रहा संहार है.
एक फ़ौज भाँट चारण की समय के साथ थी खड़ी,
एक नई फौज मोर्चे पर तैयार होके आ डंटी।

इस बीच जो सच का सरोकार है, छिन्न है,
चढ़ जाती है त्यौरियां, विचार अगर भिन्न है।
वो आईने में अक्स अपना देखते नही,
तुम आईना दिखा दो, हो जाते संकीर्ण हैं।

इतना है डर कलम से, विचार के प्रहार से,
उगलते जहर चहुँओर फैला हुआ फुफकार है।
वो लाल हो या गेरुआ या रंग ए सुकून हो,
ख़िलाफ़त की हर लेखनी का कर रहे ख़ून हो।

शाश्त्रार्थ की धरती पर शस्त्र का वजूद है,
तर्क से कंगाल है , कुतर्क से युद्ध है;
तो फिर जीत क्या और हार क्या अगर जंग की तैयारी है!
कितना भी लहू पी लो, कलम बंदूक पर भारी है।

मधुरेन्द्र

शहर के वीराने में


               
               

शहर के वीराने में कौन किसकी ख़बर रखता है?
जो रखता है वह जिस्म में ख़ून ए जिगर रखता है।
रूह जिन्दा है इसका सबूत है कैसे दे
किसी के दर्द में बस साथ खड़ा होकर देखें!


शहर के शोर में मुमकिन है कुछ कान बंद हो जाये,
कुछ आंख बंद हो जाए, कुछ मकान बंद हो जाए।
ऐसी आफत में भी जब हाँथ मदद को बढ़ते,
ऐसा लगता है कि भगवान प्रकट हो जाएं।

जिन्दगी का भरोसा क्या, एक साख पे लटका पत्ता है
कभी आंधी ,कभी बारिश तो कभी परिंदों के पर से लड़ता है
रोशन है सूरज के रहम ए रोशनी से
कब मिट्टी में मिल जाये, क्या भरोसा है।

तो फिर जिन्दा है तो जिंदगी की जय बोले
मेरी सांसे तेरी सांसो की हर लय बोले
अपनी हांथो में हूनर हो और दिल मे जज्बा
सबके चेहरे पे मुस्कान बनके हम डोले×2

मधुरेन्द्र

मंगलवार, 26 सितंबर 2017

#कलम या कयामत

               

कत्ल भी कलम का,खरीददार भी कलम का
रक्तिम सा हो गया है बाज़ार ये कलम का।
इतने भयाक्रांत तो न बम से है ना बारूद से,
जितने डरे डरे से है वे  सच के वजूद से!

विचार के प्रवाह पर विध्वंस की दीवार है,
स्वछंदता,स्वतन्त्रता का हो रहा संहार है.
एक फ़ौज भाँट चारण की समय के साथ थी खड़ी,
एक नई फौज मोर्चे पर तैयार होके आ डंटी।

इस बीच जो सच का सरोकार है, छिन्न है,
चढ़ जाती है त्यौरियां, विचार अगर भिन्न है।
वो आईने में अक्स अपना देखते नही,
तुम आईना दिखा दो, हो जाते संकीर्ण हैं।

इतना है डर कलम से, विचार के प्रहार से,
उगलते जहर चहुँओर फैला हुआ फुफकार है।
वो लाल हो या गेरुआ या रंग ए सुकून हो,
ख़िलाफ़त की हर लेखनी का कर रहे ख़ून हो।

शाश्त्रार्थ की धरती पर शस्त्र का वजूद है,
तर्क से कंगाल है , कुतर्क से युद्ध है;
तो फिर जीत क्या और हार क्या अगर जंग की तैयारी है!
कितना भी लहू पी लो, कलम बंदूक पर भारी है।

मधुरेन्द्र

#जीवन की कश्ती

                 

कभी कागज, कभी कश्ती, कभी पतवार बन जाएं
लहर कितनी भी ऊंची हो, संभलकर यार बढ़ जाये।
जिन्दा है, तो हर पल है चुनौति का खड़ा दरिया,
उसे हम पार कर जाएं, सफर में यार बढ़ जाएं।

तुम्हारी जीत में जो हाथ आसमा को छू लेंगे,
तुम्हारी हार में वो दामन चुराकर निकल लेंगे!
वो वक़्त की शह पे बदलते है फैसले,
हम लफ्ज़ की लय में बहने के कायल हैं।

किसे मालूम कल कौन देगा दस्तक बिना आहट?
कहा उम्मीद का होगा ठिकाना, किस करवट बैठेगी चाहत;
हवा का रूख किधर मुड़कर बस्ती जलाएगा,
की बूंदों की सरगम से मिलेगी धरती को राहत!

निश्चय निश्चल है, पलकों के झपकने सा
इस दरम्यान कई दृश्य पल में बदल जाये
जिसे पाया वही खोने की लय में है,
जिसे खोया उसे कैसे कहा पाएं!

जिंदगी की उधेड़बुन में चलो राहे तलाशे फिर,
ठहरकर मोड़ पर कुछ पल हमे फिर से चलना है।
जबतक सांस का है जिस्म के साथ एक रिश्ता,
जलाना है दिया और अंधेरे में उजाले भरना है।

रविवार, 14 मई 2017

#मातृदिवस को समर्पित मेरी यह #रचना.....



झुलसे हुवे शरीर से भविष्य को करती स्तनपान
छोड़ धरा की हर पीड़ा को करती है सर्वस्व दान

वेदना की ओढ़ चटाई, संवेदना की अलख जगाई
मनुजता के सर्वोच्च शिखर तुम ही तुम हो हे महान

जीवन के इस चक्र की धुरी खुद ही रहती सदा अधूरी
सांस से बांधे हर आस को करती रहती हरपल पूरी

खेत से खिलहान तक, सड़क , फैक्ट्री मकान तक
बोझ उठाये हर समाज का चलती रहती सुबह शाम

नारी तुझमे नर भी है तुममे नारायण बसता है
तुम ही शांति, तुम ही समृद्धि तुमसे ही समरसता है

बचपन वृद्ध जवानी हो या सांसों की हरएक रवानी हो
हिम शिखर से उतरे गंगा वैसी कलकल पानी हो

तुमसे जीवन, तुमसे यौवन, तुमसे है संसार सजा
तुम ही मां हो तुम ही धरा हो तुझ बिन जीवन जुदा जुदा

मधुरेन्द्र

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

जीवन और स्मृति

स्मृतियों का खड़ा हिमालय
बर्फ सा पिघल जाता है
उसी आलोक में समां जाता है
जहाँ से जुडी है उसके अंकुर की जड़ें.

पलकों के खुलते ही आँखों के समंदर में
उतरने लगती है वक़्त की कश्तियां
कभी मौजो से अठखेलियां करती
तो कभी लहरों के तूफाँ से जूझती
कभी इतराती बलखाती
तो कभी शांत शीतल स्तब्ध सी हो जाती.

रिश्तों के तार कोकून के धागे से उलझते हुवे
ले लेते है अपने आगोश में कुछ इस तरह
की जीवन की तितली हर रंग में रंग जाये
और उसका चक्र फूलों के पंखुड़ियों पर
आदि से अंत तक समाहित हो जाए.

शरीर और स्मृति सिक्के के दो पहलु नहीं हैं
समय की चाक पर बनते अनुभवों के बर्तन है
जिनका अवतरण और समापन
मिट्टी से मिट्टी तक का सफर तय करता है.

फिर क्यों इतना बोझ,नींद में तैरते सपनो का
फिर क्यों इतना लोभ संग्रह के संघर्ष का
फिर क्यों इतना मोह स्वयं के अस्तित्व का
फिर क्यों इतना छोभ उसकी जीत अपनी हार का.

कभी थाम लो मन को बादल की तरह
कभी बरसने दो जी भर बूंदों की तरह
कभी उड़ने दो हवा के झोंको की तरह
तो कभी जलने दो आग व शोलो की तरह

मधुरेन्द्र