कत्ल भी कलम का,खरीददार भी कलम का
रक्तिम सा हो गया है बाज़ार ये कलम का।
इतने भयाक्रांत तो न बम से है ना बारूद से,
जितने डरे डरे से है वे सच के वजूद से!
विचार के प्रवाह पर विध्वंस की दीवार है,
स्वछंदता,स्वतन्त्रता का हो रहा संहार है.
एक फ़ौज भाँट चारण की समय के साथ थी खड़ी,
एक नई फौज मोर्चे पर तैयार होके आ डंटी।
इस बीच जो सच का सरोकार है, छिन्न है,
चढ़ जाती है त्यौरियां, विचार अगर भिन्न है।
वो आईने में अक्स अपना देखते नही,
तुम आईना दिखा दो, हो जाते संकीर्ण हैं।
इतना है डर कलम से, विचार के प्रहार से,
उगलते जहर चहुँओर फैला हुआ फुफकार है।
वो लाल हो या गेरुआ या रंग ए सुकून हो,
ख़िलाफ़त की हर लेखनी का कर रहे ख़ून हो।
शाश्त्रार्थ की धरती पर शस्त्र का वजूद है,
तर्क से कंगाल है , कुतर्क से युद्ध है;
तो फिर जीत क्या और हार क्या अगर जंग की तैयारी है!
कितना भी लहू पी लो, कलम बंदूक पर भारी है।
मधुरेन्द्र