शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

जीवन और स्मृति

स्मृतियों का खड़ा हिमालय
बर्फ सा पिघल जाता है
उसी आलोक में समां जाता है
जहाँ से जुडी है उसके अंकुर की जड़ें.

पलकों के खुलते ही आँखों के समंदर में
उतरने लगती है वक़्त की कश्तियां
कभी मौजो से अठखेलियां करती
तो कभी लहरों के तूफाँ से जूझती
कभी इतराती बलखाती
तो कभी शांत शीतल स्तब्ध सी हो जाती.

रिश्तों के तार कोकून के धागे से उलझते हुवे
ले लेते है अपने आगोश में कुछ इस तरह
की जीवन की तितली हर रंग में रंग जाये
और उसका चक्र फूलों के पंखुड़ियों पर
आदि से अंत तक समाहित हो जाए.

शरीर और स्मृति सिक्के के दो पहलु नहीं हैं
समय की चाक पर बनते अनुभवों के बर्तन है
जिनका अवतरण और समापन
मिट्टी से मिट्टी तक का सफर तय करता है.

फिर क्यों इतना बोझ,नींद में तैरते सपनो का
फिर क्यों इतना लोभ संग्रह के संघर्ष का
फिर क्यों इतना मोह स्वयं के अस्तित्व का
फिर क्यों इतना छोभ उसकी जीत अपनी हार का.

कभी थाम लो मन को बादल की तरह
कभी बरसने दो जी भर बूंदों की तरह
कभी उड़ने दो हवा के झोंको की तरह
तो कभी जलने दो आग व शोलो की तरह

मधुरेन्द्र

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें