झुलसे हुवे शरीर से भविष्य को करती स्तनपान
छोड़ धरा की हर पीड़ा को करती है सर्वस्व दान
वेदना की ओढ़ चटाई, संवेदना की अलख जगाई
मनुजता के सर्वोच्च शिखर तुम ही तुम हो हे महान
जीवन के इस चक्र की धुरी खुद ही रहती सदा अधूरी
सांस से बांधे हर आस को करती रहती हरपल पूरी
खेत से खिलहान तक, सड़क , फैक्ट्री मकान तक
बोझ उठाये हर समाज का चलती रहती सुबह शाम
नारी तुझमे नर भी है तुममे नारायण बसता है
तुम ही शांति, तुम ही समृद्धि तुमसे ही समरसता है
बचपन वृद्ध जवानी हो या सांसों की हरएक रवानी हो
हिम शिखर से उतरे गंगा वैसी कलकल पानी हो
तुमसे जीवन, तुमसे यौवन, तुमसे है संसार सजा
तुम ही मां हो तुम ही धरा हो तुझ बिन जीवन जुदा जुदा
मधुरेन्द्र

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