सोमवार, 2 जनवरी 2017

2017 की पहली कविता

नए साल पर नयी रचना...

कोहरे में लिपटी हुई भोर दबे पाँव चली आयी.
गुमनामी के अंधेरे में घिरी  कसमसाती हुई.
मुर्गे के बाग ने वक़्त से  पर्दा उठाया,
अब भोर कोहरे के आग़ोश से आज़ाद थी.

अपने अस्तित्व पर हम लपेट लेते है कभी कोहरा, कभी धुंध,कभी बादल तो कभी धुल.
अगर स्वयं आज़ाद न हो पाए तो जरुरत है एक बाग़ की
पर कौन देगा मुर्गे की तरह बाग़ ;की सर्दी के भोर की तरह हमारा अस्तित्व भी प्रकट हो सके

अंकुर का प्रस्फुटित होना जीवन के लक्षण है
तो ठण्ड,ओस,पाला और बर्फ से जूझना अस्तित्व का संरक्षण.
हर पल, प्रतिछण अस्तित्व अपने होने का जरुरी है
वक़्त के थपेड़ों से लड़ते हुवे किसी अन्य आवरण से अलग थलग.

उनकी मुर्तिया, तस्वीरे , पुरस्कार , उपलब्धियां
हजारो हजार अनभिज्ञ अस्तित्वों की ईंटो से बनी है.
पर ढूंढना चाहू तो खाली हाथ, दूसरों के योगदान के अंश से अनजान.
इसलिए जरूरी है अपने अस्तित्व का सारथि होना
वरना हम भी लिपट जाएंगे भोर की तरह कोहरे में, किसी और की उप्लब्धियों की प्रतिमा में.

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