सोमवार, 2 जनवरी 2017

2016 की आखिरी कविता

2016 की आखिरी कविता...

हम रोज ढलते है, लेकिन सूरज की तरह नहीं. हम रोज चलते हैं, लेकिन वक़्त की तरह नहीं.हम रोज घुलते हैं, लेकिन सुगंध की तरह नहीं.हम रोज मिलते है लेकिन फूलों की तरह नहीं.

हमारा सौदर्य कृत्रिम क्यों है, प्राकृतिक होने में क्या इतने खतरे हैं ? हमारा स्वरुप स्थायी क्यों नहीं जो बदलता है वक़्त दर वक़्त नाटक के किरदार की तरह. हमारी आस्था जड़ क्यों है, नियति की तरह. क्यों हमारी सोच के पंख स्वकछंद नहीं होते, उलझा जाते है पतझड़ की टहनियों में।

सवालों की लहरें रोज टकराती है अंतर्मन के किनारों से, उठता है ज्वार छू लेने को आसमां की ऊँचाई में छिपे सच्चाई के रहस्य को. घिरते बदलो में अचानक जब आप अस्तित्व विहीन हो जाए तो तलाश होती है उन हवाओ की जो बारिश में कर दे सराबोर।

बहती नदी से बह जाना ही जीवन है. अंकुर सा फूटना, लाहलाहना और फिर मुरझाना ही जीवन है। अनन्त दृश्य अदृश्य भू नभ के जीवंत कण से बदलते रूप होते कभी किसी के तो किसी और के समरूप. अनभिज्ञ है स्वयं के इतिहास और भविष्य से बस एक काया में न मालूम कबतक चलायमान...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें