रविवार, 8 जनवरी 2017

बारिश की बूंदे

बारिश की बूंदे महसूस नहीं होती
अब भींग जाता हूँ
डर बीमार होने का घर कर लेता है
या फिर दिखती है काम में बाधा

मिट्टी की सौंधी खुसबू
खपड़े पर बूंदों की थाप
रात भर आनेवाली मेढकों की टर्र टर्र आवाज
बहते पानी की धार पर कागज की नाव

जिन्दा है यादो में, हो गयी तरोताजा
पढ़कर मौसम विभाग का अनुमान
की हवा का रूख कुछ बदलेगा
ठंड में बारिश, पच्छिमी विछोभ से आएगी।

बारिश यथार्थ है लेकिन उसको महसूस करना
यादों के झरोखे पर टकटकी के जैसा है
कही इस बीच फ़ोन की घंटी बजी
तो स्वप्निल नींद का अनायास टूटना समझिये

बरसात में छाता और बस्ता एक दूसरे के साथी होते
लेकिन अपनी ख़ुशी तो इनके बिछुड़ने में है
तरबतर होने का वो एहसास कल मामूली था
लेकिन आज इंद्रधनुष के रंगो सा दिखता है।

मधुरेन्द्र

सोमवार, 2 जनवरी 2017

2017 की पहली कविता

नए साल पर नयी रचना...

कोहरे में लिपटी हुई भोर दबे पाँव चली आयी.
गुमनामी के अंधेरे में घिरी  कसमसाती हुई.
मुर्गे के बाग ने वक़्त से  पर्दा उठाया,
अब भोर कोहरे के आग़ोश से आज़ाद थी.

अपने अस्तित्व पर हम लपेट लेते है कभी कोहरा, कभी धुंध,कभी बादल तो कभी धुल.
अगर स्वयं आज़ाद न हो पाए तो जरुरत है एक बाग़ की
पर कौन देगा मुर्गे की तरह बाग़ ;की सर्दी के भोर की तरह हमारा अस्तित्व भी प्रकट हो सके

अंकुर का प्रस्फुटित होना जीवन के लक्षण है
तो ठण्ड,ओस,पाला और बर्फ से जूझना अस्तित्व का संरक्षण.
हर पल, प्रतिछण अस्तित्व अपने होने का जरुरी है
वक़्त के थपेड़ों से लड़ते हुवे किसी अन्य आवरण से अलग थलग.

उनकी मुर्तिया, तस्वीरे , पुरस्कार , उपलब्धियां
हजारो हजार अनभिज्ञ अस्तित्वों की ईंटो से बनी है.
पर ढूंढना चाहू तो खाली हाथ, दूसरों के योगदान के अंश से अनजान.
इसलिए जरूरी है अपने अस्तित्व का सारथि होना
वरना हम भी लिपट जाएंगे भोर की तरह कोहरे में, किसी और की उप्लब्धियों की प्रतिमा में.

2016 की आखिरी कविता

2016 की आखिरी कविता...

हम रोज ढलते है, लेकिन सूरज की तरह नहीं. हम रोज चलते हैं, लेकिन वक़्त की तरह नहीं.हम रोज घुलते हैं, लेकिन सुगंध की तरह नहीं.हम रोज मिलते है लेकिन फूलों की तरह नहीं.

हमारा सौदर्य कृत्रिम क्यों है, प्राकृतिक होने में क्या इतने खतरे हैं ? हमारा स्वरुप स्थायी क्यों नहीं जो बदलता है वक़्त दर वक़्त नाटक के किरदार की तरह. हमारी आस्था जड़ क्यों है, नियति की तरह. क्यों हमारी सोच के पंख स्वकछंद नहीं होते, उलझा जाते है पतझड़ की टहनियों में।

सवालों की लहरें रोज टकराती है अंतर्मन के किनारों से, उठता है ज्वार छू लेने को आसमां की ऊँचाई में छिपे सच्चाई के रहस्य को. घिरते बदलो में अचानक जब आप अस्तित्व विहीन हो जाए तो तलाश होती है उन हवाओ की जो बारिश में कर दे सराबोर।

बहती नदी से बह जाना ही जीवन है. अंकुर सा फूटना, लाहलाहना और फिर मुरझाना ही जीवन है। अनन्त दृश्य अदृश्य भू नभ के जीवंत कण से बदलते रूप होते कभी किसी के तो किसी और के समरूप. अनभिज्ञ है स्वयं के इतिहास और भविष्य से बस एक काया में न मालूम कबतक चलायमान...