मंगलवार, 26 सितंबर 2017

#कलम या कयामत

               

कत्ल भी कलम का,खरीददार भी कलम का
रक्तिम सा हो गया है बाज़ार ये कलम का।
इतने भयाक्रांत तो न बम से है ना बारूद से,
जितने डरे डरे से है वे  सच के वजूद से!

विचार के प्रवाह पर विध्वंस की दीवार है,
स्वछंदता,स्वतन्त्रता का हो रहा संहार है.
एक फ़ौज भाँट चारण की समय के साथ थी खड़ी,
एक नई फौज मोर्चे पर तैयार होके आ डंटी।

इस बीच जो सच का सरोकार है, छिन्न है,
चढ़ जाती है त्यौरियां, विचार अगर भिन्न है।
वो आईने में अक्स अपना देखते नही,
तुम आईना दिखा दो, हो जाते संकीर्ण हैं।

इतना है डर कलम से, विचार के प्रहार से,
उगलते जहर चहुँओर फैला हुआ फुफकार है।
वो लाल हो या गेरुआ या रंग ए सुकून हो,
ख़िलाफ़त की हर लेखनी का कर रहे ख़ून हो।

शाश्त्रार्थ की धरती पर शस्त्र का वजूद है,
तर्क से कंगाल है , कुतर्क से युद्ध है;
तो फिर जीत क्या और हार क्या अगर जंग की तैयारी है!
कितना भी लहू पी लो, कलम बंदूक पर भारी है।

मधुरेन्द्र

#जीवन की कश्ती

                 

कभी कागज, कभी कश्ती, कभी पतवार बन जाएं
लहर कितनी भी ऊंची हो, संभलकर यार बढ़ जाये।
जिन्दा है, तो हर पल है चुनौति का खड़ा दरिया,
उसे हम पार कर जाएं, सफर में यार बढ़ जाएं।

तुम्हारी जीत में जो हाथ आसमा को छू लेंगे,
तुम्हारी हार में वो दामन चुराकर निकल लेंगे!
वो वक़्त की शह पे बदलते है फैसले,
हम लफ्ज़ की लय में बहने के कायल हैं।

किसे मालूम कल कौन देगा दस्तक बिना आहट?
कहा उम्मीद का होगा ठिकाना, किस करवट बैठेगी चाहत;
हवा का रूख किधर मुड़कर बस्ती जलाएगा,
की बूंदों की सरगम से मिलेगी धरती को राहत!

निश्चय निश्चल है, पलकों के झपकने सा
इस दरम्यान कई दृश्य पल में बदल जाये
जिसे पाया वही खोने की लय में है,
जिसे खोया उसे कैसे कहा पाएं!

जिंदगी की उधेड़बुन में चलो राहे तलाशे फिर,
ठहरकर मोड़ पर कुछ पल हमे फिर से चलना है।
जबतक सांस का है जिस्म के साथ एक रिश्ता,
जलाना है दिया और अंधेरे में उजाले भरना है।