रविवार, 2 फ़रवरी 2020

वर्दी वाले गुंडे..

मौजूदा हालात पर मेरी यह कविता...

जब वर्दी में ही गुंडे हो,
खाकी में खड़े लफंगे हो,
कानून है इनकी जूती में,
जोर जुल्म मजबूती में,

तो कौन न्याय की ढाल बने
फिर कौन मुक्त महसूस करे
हर तरफ बेड़िया, हंटर है
जब पुलिस के हाँथ ही खंजर है,

लोकतंत्र खड़ा है कोमा में
अराजकता की सीमा में,
आजादी प्रेस की कैद हुई
अभिव्यक्ति ही अवैध हुई

सच की कीमत सरहद जैसी
जहा हर पल जीवन खतरे में
दिल्ली पुलिस के साये में
अन्याय दिखा हर कतरे में,

गांधी जब मन के आँगन से
हांथो के धूल बन जायेंगे
जय भीम के नारे कहने पर
डंडे बरसाए जाएंगे

तो फिर क्यों न कहें तुम्हे जालिम हम
जिसका आदर्श जलियावाला
इस लोकतन्र्त के खम्बे का
कौन बचा है रखवाला?

मधुरेन्द्र

शनिवार, 4 जनवरी 2020

पत्थर की व्यथा


मैं एक घायल पत्थर हूं,
कौन मेरी सुध लेगा भारत?
तेरी भूमि पर हुआ तिरस्कृत, 
इतना कि बदली मेरी सूरत.

घर में छत हूं और दीवार,
बाहर भीतर अपरम्पार,
सफर में सड़क बन जाता हूं,
करता हूं हर मंजिल पार.

मंदिर हो या मस्जिद हो,
गुरुद्वारा या कोई देवालय,
कही आराध्य का आशियाँ हूं,
कही बन जाऊं स्वयं शिवालय.

तेरे पग से मस्तक तक 
रोज वरण मेरा होता है,
वक्ष पाताल का मेरा है
हिम से शिखर दमकता है.

लेकिन तेरे नये भारत मे
ये क्या मेरा उपयोग हुआ?
मैं शस्त्र नहीं मैं अस्त्र नहीं,
क्यों मेरा दुरुपयोग हुआ.

मैं प्रकृति का एक अंग,
मनुजता के सदैव संग,
मेरा क्या दोष है इस जग में
की मेरा ऐसा उपभोग हुआ?

करो माफ हे जगवालो,
मुझसे कोई घायल न हुआ,
मैं स्वयं व्यथित हूं देख दृश्य
क्यों मुझसे खूनी खेल खेला?

मैं पत्थर हूं, पत्थर-दिल नही,
ये बात समझ जाओ तुम लोग,
इंसा हो इंसा बने रहो,
बंद करो मेरा प्रयोग ।

मधुरेन्द्र