मंगलवार, 17 अक्टूबर 2017

दिया और जीवन

     
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जीवन समर दिये सा है, जलते रहना फितरत है,
बाती, तेल, हवा का झोंका; शेष आपकी किस्मत है.
लॉ की अपनी दिशा है अम्बर ,ना कोई असर  गुरुत्व बल का,
जिसके तेज से फ़टे अंधेरा, चलता वह धारा के विपरीत है.

लिपटी रात कालिमा में, फैला चहु ओर अंधेरा है,
टिम टिम टिम टिम गहन सितारे ऐसे उतरे की सबेरा है.
हर अंधेरे के सीने में दीप, दीप की लौ फूटे,
हर समाज का चेतन मन जैसे प्रस्फुटित हो उठे.

हम अंधेरे के हर साम्रज्य को सदियो से चुनौती देते है,
हर दीपावली नव जीवन मे नई संवेदना भरते है.
टकराये हर ग्रह नक्षत्र से ऐसा हो हिमालय सा निश्चय,
ज्योति कलश सजाए ऐसे , हर क्लेश हो जाये छय.

एक और दीवाली के पथ पर हम चलने को तैयार खड़े,
हर रोज दीवाली जीवन मे हो ऐसा हम संकल्प गढ़े.
तन का ही नही मन का भी, अधंकार सब मिट जाए,
ऐसी कामना के संग सबको, आज हम नमन करें.🙏🙏🙏🙏
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं आपको और पूरे परिवार को
🙏🙏
मधुरेन्द्र सपरिवार

रविवार, 8 अक्टूबर 2017

कलम और कातिल




कत्ल भी कलम का,खरीददार भी कलम का
रक्तिम सा हो गया है बाज़ार ये कलम का।
इतने भयाक्रांत तो न बम से है ना बारूद से,
जितने डरे डरे से है वे  सच के वजूद से!

विचार के प्रवाह पर विध्वंस की दीवार है,
स्वछंदता,स्वतन्त्रता का हो रहा संहार है.
एक फ़ौज भाँट चारण की समय के साथ थी खड़ी,
एक नई फौज मोर्चे पर तैयार होके आ डंटी।

इस बीच जो सच का सरोकार है, छिन्न है,
चढ़ जाती है त्यौरियां, विचार अगर भिन्न है।
वो आईने में अक्स अपना देखते नही,
तुम आईना दिखा दो, हो जाते संकीर्ण हैं।

इतना है डर कलम से, विचार के प्रहार से,
उगलते जहर चहुँओर फैला हुआ फुफकार है।
वो लाल हो या गेरुआ या रंग ए सुकून हो,
ख़िलाफ़त की हर लेखनी का कर रहे ख़ून हो।

शाश्त्रार्थ की धरती पर शस्त्र का वजूद है,
तर्क से कंगाल है , कुतर्क से युद्ध है;
तो फिर जीत क्या और हार क्या अगर जंग की तैयारी है!
कितना भी लहू पी लो, कलम बंदूक पर भारी है।

मधुरेन्द्र

शहर के वीराने में


               
               

शहर के वीराने में कौन किसकी ख़बर रखता है?
जो रखता है वह जिस्म में ख़ून ए जिगर रखता है।
रूह जिन्दा है इसका सबूत है कैसे दे
किसी के दर्द में बस साथ खड़ा होकर देखें!


शहर के शोर में मुमकिन है कुछ कान बंद हो जाये,
कुछ आंख बंद हो जाए, कुछ मकान बंद हो जाए।
ऐसी आफत में भी जब हाँथ मदद को बढ़ते,
ऐसा लगता है कि भगवान प्रकट हो जाएं।

जिन्दगी का भरोसा क्या, एक साख पे लटका पत्ता है
कभी आंधी ,कभी बारिश तो कभी परिंदों के पर से लड़ता है
रोशन है सूरज के रहम ए रोशनी से
कब मिट्टी में मिल जाये, क्या भरोसा है।

तो फिर जिन्दा है तो जिंदगी की जय बोले
मेरी सांसे तेरी सांसो की हर लय बोले
अपनी हांथो में हूनर हो और दिल मे जज्बा
सबके चेहरे पे मुस्कान बनके हम डोले×2

मधुरेन्द्र