बचपन की यादें....
ख्वाबों को दिन के उजालो मे गढना,
बेबाक धीर धरना , साकार करना,
ना मुडकर कभी पीछे देखा कहीं भी,,
छोड उंगली चला, बस चलते ही रहना।
वक्त की राह कितनी सहज चलती जाती,
आती है जब भी बचपन की यादें।
आम के मंजर जैसे टिकोले मे बदले,
सर पे सूरज उगलने लगता था शोले,
मां कहती थी सो जा लू लग जायेगी,
हम इस ताक मे थे कब बागीचा डोलें।
आग सूरज ने चाहे लगाई हो जितनी,
चांद बरसे तो परियों ने भी पंख खोले,
दादी अम्मा से सुनना ऐसी कहानी,
बडी खुबसूरत राजा और रानी।
यादों के ऐसे मंजर ,दिल को सताते,
आती है जब भी बचपन की यादें।
आसमां की रंगत बदलते देखा,
सूरज को कोहरे तले ढलते देखा,
बादलो की चादर से चमकी जो बिजली,
डर के मारे खूद को सहमते भी देखा।
बूंदो की सरगम मे तन को भिगोना,
गिली मिट्टी से गढना अपना खिलौना।
मिट्टी की क्यारियों से नदियां बनाना,
दूर उनको ले जाना समंदर गिराना।
मै और हम की ना होती थी बाते
आती है जब भी बचपन की यादें।
वक्त का मोड जब मुझसे रूठ जाये,
रिश्ते नातो का बंधन मुझको सताये,
लौट जाता हूं मै बचपन की यादों में,
जहां सब हैं अपने , ना कोई पराये।
